Friday, January 28, 2011

एक सुझाव

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जब मानव की नस नस में दानवता का प्रसार होता है

जब रक्षक ही भक्षक बन, बाप ही कुबाप बन

रिश्तों की पवित्रता को मिट्टी में मिला डाले

नौजवानों का आहार जब चरस और शराब हो

माया का नशा इंसा को बेहिसाब हो

मृत्यु जब अट्टहास करे, जीवन जब कराहने लगे

बेबसी की बेड़ियों में मानवता चिल्लाने लगे

घर-घर में जब कंस हो, कौरवों का वंश हो

बुद्धि पर कपाट हो

लहू की लालिमा से लथपथ ललाट हो

अर्थ जब अनर्थ लगे, अमृत जब व्यर्थ लगे

अमन बन जाए कफन, शान्ति हो जाए दफन


तब?

ब्रह्मज्ञान ही सर्वस्व बचा सकता है

दुनिया को स्वर्ग बना सकता है


---सुश्री गंगा भारती

उत्तिष्ठत
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सुनो अमरता को छोड़

मृत्यु पथ के अनुरागी,

मत कहो, दीन है मानव


ही, मिट्टी की ढेरी है,

किरण का रथ चलाये जो

कहीं उस व्योम के ऊपर

ये है वो पुंज-पावक का

समझने भर की देरी है।


मत रहो, उम्रभर बेबस,

व्यथा का ठेलने वाले,

ज़रा सोचो तो ऐसे

वीर पुरुषों के हो वंशज

तुम कि जो थे , काल को

भुजबीच- भरकर खेलने वाले।


मत सहो, रूढ़ियां-प्रचलित,

तमस से जोड़ने वालीं

और उस सत्य की हलचल

से यूं आँखें फेरो तुम,

जो है कुछ देर में बरबस-

तुम्हें झकझोरने वाली।



मत बहो, मन के मोती,

खोजने को दुःख की नदियों में,

तुम उसकी ओर भी देखो

जो तुमसे बस ये कहती है,

"ये पांचों-तत्त्व मिलते हैं,

मुझे इक-बार सदियों में"




यही सपना है इस महान ऋषि का!

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उत्सव बने सभी का जीवन ओर ज़िन्दगी गुनगुनाये

हो गम की परछाई जहाँ, चाहे मौत भी झूम-झूम आये

लड़े जहाँ प्रतिमा से प्रतिमा, कभी टूटे हृदय किसी का

हर घट में बजे प्रेम की वीणा, यही सपना है इस महान ऋषि का!



दुर्विचारों के दुर्दिन लद जायें, सुविचारों के शुभ दिन जायें

कलुषिता मन की खत्म हो जब, हर जीवन शान्ति से लहलहाये

दूसरों के दुःख का देखकर जब, पिघले मन हर किसी का

हर लब से निकले शहद सी वाणी, यही सपना है इस महान ऋषि का!



ईर्ष्या घृणा को दे तिलांजलि, मन सद्भावना का आँगन बन जाये

मेरे तेरे का अंत हो जब, एकता की स्वर लहरी बह आये

परिवार एक हो समाज एक हो विश्व एक हो, बंधुत्व में भीगे प्राण हर एक का

विश्व शांन्ति का बाण लक्ष्य को भेदे, यही सपना है इस महान ऋषि का!

-स्वामी ज्ञानेशानंद

चाँद भी हैरान है, देख धरती पे ऐसा नूर!
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चाँद भी हैरान है, देख धरती पे ऐसा नूर!

सूरज का घमंड भी, हो गया चूर-चूर!

तारे जिससे मिलने को हो गए मजबूर!

लज्जित होकर हर पुष्प झुका, जब पाया ऐसा सुरूर!

फटा कलेजा अंबर का, जब पाया खुद से दूर!

धरती पावन हो गई पल में, चूमे चरण भरपूर!

चलती पवन भी झूम गई, नज़र में आया जब वो हूर!

गंगा ने भी चरण पखारे, रह पायी दूर!

ढूँढ सका कोई, आशु बाबा तुझसा नूर!

नमन तुझे मेरे मालिक, सारी मलकियत के हुजूर!


---ज्योति, पंजाब