उत्तिष्ठत
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सुनो ओ अमरता को छोड़
मृत्यु पथ के अनुरागी,
मत कहो, दीन है मानव
न ही, मिट्टी की ढेरी है,
किरण का रथ चलाये जो
कहीं उस व्योम के ऊपर
ये है वो पुंज-पावक का
समझने भर की देरी है।
मत रहो, उम्रभर बेबस,
व्यथा का ठेलने वाले,
ज़रा सोचो तो ऐसे
वीर पुरुषों के हो वंशज
तुम कि जो थे , काल को
भुजबीच- भरकर खेलने वाले।
मत सहो, रूढ़ियां-प्रचलित,
तमस से जोड़ने वालीं
और उस सत्य की हलचल
से यूं आँखें न फेरो तुम,
जो है कुछ देर में बरबस-
तुम्हें झकझोरने वाली।
मत बहो, मन के मोती,
खोजने को दुःख की नदियों में,
तुम उसकी ओर भी देखो
जो तुमसे बस ये कहती है,
"ये पांचों-तत्त्व मिलते हैं,
मुझे इक-बार सदियों में"॥
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