Friday, January 28, 2011

उत्तिष्ठत
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सुनो अमरता को छोड़

मृत्यु पथ के अनुरागी,

मत कहो, दीन है मानव


ही, मिट्टी की ढेरी है,

किरण का रथ चलाये जो

कहीं उस व्योम के ऊपर

ये है वो पुंज-पावक का

समझने भर की देरी है।


मत रहो, उम्रभर बेबस,

व्यथा का ठेलने वाले,

ज़रा सोचो तो ऐसे

वीर पुरुषों के हो वंशज

तुम कि जो थे , काल को

भुजबीच- भरकर खेलने वाले।


मत सहो, रूढ़ियां-प्रचलित,

तमस से जोड़ने वालीं

और उस सत्य की हलचल

से यूं आँखें फेरो तुम,

जो है कुछ देर में बरबस-

तुम्हें झकझोरने वाली।



मत बहो, मन के मोती,

खोजने को दुःख की नदियों में,

तुम उसकी ओर भी देखो

जो तुमसे बस ये कहती है,

"ये पांचों-तत्त्व मिलते हैं,

मुझे इक-बार सदियों में"




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